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बनारस के उजड़ते बुनकरों के सामने आजीविका का संकट गहराता जा रहा है

 अलकबीर/ अपर्णा 

वाराणसी। बनारस की सबसे घनी और गंदी बस्तियों में से एक लल्लापुरा अपनी कहानी कहने के लिए किसी उपमान को खोजने की मोहलत नहीं देता। बड़ी आसानी से आप समझ जाते हैं कि यह नगर निगम के सबसे उपेक्षित इलाकों में है। यहाँ सीवर के ढक्कन खुले हो सकते हैं, नालियाँ बजबजाती हुई ओवरफ्लो हो सकती हैं, अनचक्के में उसमें गिरने या चोट लगने के खतरों के बावजूद न ठीक करनेवालों के कान पर जूं रेंगती है और न ही मोहल्लेवालों को कोई खास फर्क पड़ता है। चारों ओर गंदगी बिखरी रहती है लेकिन सफाई के नाम पर कभी-कभार ही कोई कर्मचारी इधर का रुख करता है। किसी जमाने में हथकरघे से गुलजार इस मोहल्ले में अब पावरलूम की खटखट अधिक तेजी से सुनाई पड़ती है और उसी तेजी से यहाँ बेरोजगारी बढ़ी है। लोगों के दुखों ने उनको भीतर से इतना तोड़ दिया है कि वे अपनी दर्दबयानी करने में भरोसा नहीं करते। हालांकि कुरेदने पर वे अपने  तकलीफ़देह हालात और साधारण ज़िंदगी की चुनौतियों और संकटों की बातें कह देते हैं लेकिन उनकी हताशा और निराशा उनके चेहरे को भिंगा देती है। यूं तो गरीब आदमी के इतिहास का कोई अंत नहीं होता लेकिन इस सदी की शुरुआत ही बुनकरों के लिए अंधेरे दिनों की शुरुआत बनकर आई। रेशम की किल्लत और उसको लेकर रोज आनेवाली नई-नई परेशानियों ने धीरे-धीरे बनारसी साड़ी उद्योग की कमर तोड़ दी। फिर शुरू हुई भूखमरी और पलायन की रोंगटे खड़े कर देनेवाली कहानियाँ। बुनकरों की विशाल आबादी छिन्न-भिन्न होने लगी। किसी ने रिक्शे में जीवन की राह तलाशी, कोई मजदूरी करने लगा और कुछ ने आत्महत्या भी कर ली। परिवार के परिवार तबाह होते रहे। सुनने में कई बार यह आया कि बच्चों की भूख से तड़पकर किसी-किसी ने कबीरचौरा और बीएचयू के अस्पतालों में खून बेचकर रोटी का जुगाड़ किया। लोग इतने बेहाल, बदहवास और नाउम्मीद होते गए कि निराशा और हताशा उनका स्थाई भाव बन गया।

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